फेसबुक ने मुझे लिखने को प्रेरित किया। यहां पाठक भी हैं, प्रतिक्रियाएं भी हैं और कद्रदान भी।
तपती ‘रेत’ किसे सहारा दे सकती है? लेकिन शब्दों को किनारा तो दे ही सकती है! एक शक्स जिन्हें राजस्थान की रेत ने हमेशा शब्द दिए। प्रोत्साहित किया। विचारों को उड़ान दी। ...वो थमे, पर रुके नहीं। 1989 बैच के आरएएस अधिकारी अश्विनी शर्मा ने तकनीक और काव्य के ऐसे संगम से रचनाओं को एक मंच पर लाने का काम किया है, जो, लीक से हटकर है। उनके शब्दों में वो बात है! जिसकी अपेक्षा आप-हम या संजीदा पाठक करते हैं।
गजल की गहराईयों से ताल्लुक रखने वाले अश्विनी की रचनाओं में कहीं भी भाषाई असंतुलन नजर नहीं आता। बेहद तारतम्यता तथा हिंदी और उर्दू के गहरे मेलभाव के साथ उनकी रचनाएं प्रभाव डालती हैं। गजल की व्याकरण, जो इस दौर के रचनाकारों में कम ही करीब से महसूस कर पाते हैं, अश्विनी की रचनाओं में रची-बसी हैं। उनकी शायद ही कोई गजल मिले, तो गजल लेखन के उसूलों की सीमा लांघती नजर आती हो। गजलों की गहराई बताते वे कहते हैं, ‘गजल में बहर (ह में र) के जरिए विभिन्न शब्दों के ‘वज्न’ को निभाया जाता है। ऐसा गजल की हर पंक्ति में होता है। ‘खारिज’ का भी अपना महत्त्व है। यह गजल गायकी से ताल्लुक रखती है।’
एक दिलचस्प कहानी भी है, जो अश्विनी के लेखन से गहरा नाता तो रखती है, लेकिन उन्हें जानने वाले ज्यादातर इससे अनजान हैं। अश्विनी का पहला गजल संग्रह एक रहस्य की तरह है। 1989 में लिखे इस संग्रह के बारे में अश्विनी बतलाते हैं, ‘जिस साल मैं आरएएस बना उसी साल मैंने यह संग्रह लिखा था और बीकानेर के एक प्रकाशक को दिया था। उन्होंने इसे 1999 में प्रकाशित किया, लेकिन इतनी त्रुटियों के साथ की इसका स्वरूप ही बदल गया। ...और मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया। फिर अचानक फेसबुक पर मैंने लिखना शुरू किया। चाहने वाले मिले। कद्रदान मिले। मेरी भी जिज्ञासा लिखने-पढऩे वालों को लेकर बढ़ी। उत्साह बना और फिर शुरू हो गया एक सिलसिला लेखन का।’ अपने आगामी प्रकाशन के बारे में उत्सुक अश्विनी कहते हैं, ‘कस्बाई जीवन में मेरी कई रचनाए हैं....
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