जीत और हार के बीच की दूरी कितनी होती है? शायद उतनी जितनी हम महसूस भी न कर पाएं! ‘संभावनापूर्ण चिंतन’ की इस दूरी को समझने और उसे आत्मसात करने का माद्दा कम ही लोगों में होता है। इसी दूरी को पाटने और सपनों को हकीकत में बदलने की सफल कोशिश का नाम है डॉ. नरेश दाधीच। एक ऐसे शक्स जिन्हें असफलता का डर भी डरा न सका और जिन्होंने अपनी छोटी-छोटी सफलताओं का कुछ इस तरह बुना की आज देश के शिक्षा जगत में वे सबसे बड़ी जीवंत केस स्टडी बनकर उभरे हैं।
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय आज देश के उन चुनिंदा खुला विश्वविद्यालयों में शामिल है, जो शिक्षा के लिहाज से बड़े वर्ग के सपनों को बुनने में अहम भूमिका निभा रहा है। 114 कोर्स, 1.34 लाख विद्यार्थी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री के साथ आज हम इस
विश्वविद्यालय की भले ही ताजा तस्वीर देख रहे हों, लेकिन उस तस्वीर का क्या जो दाधीच सहित कुछेक लोगों ने ही देखी? करीब 15 हजार विद्यार्थियों को चुनिंदा कोर्स उपलब्ध करवाने वाला कोटा खुला विश्वविद्यालय 2006 में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ा रहा था। बढ़ते खर्चे, घटते विद्यार्थी और पारम्परिक शिक्षण प्रणालियों ने विश्वविद्यालय की कमर तोड़ दी थी। ...और सरकार विश्वविद्यालय को बंद करने के बड़े फैसले की ओर अपना रुझान करीब-करीब तय कर चुकी थी। ऐसे में डॉ. दाधीच के एक विचार ने उस रुख का रास्ता ही बदल दिया, जो इस विश्वविद्यालय को अब तक इतिहास के पन्नों में पहुंचा चुका होता। शायद डॉ. दाधीच आखरी शक्स थे, जिनसे वह सवाल किया गया था, ‘क्या कोटा खुला विश्वविद्यालय बंद कर देना चाहिए?’ जवाब सबसे अलग था। ‘नहीं! इसे चलाया जा सकता है!’ सामने से फिर एक सवाल आया, ‘आखिर कैसे? हालात और परिस्थितियां किसी भी पैमाने पर इसे चलाने के पक्ष में नहीं हैं? क्या आप बता सकते हैं कैसे?’ ‘हां!’ डॉ. दाधीच की इसी ‘हां’ ने विश्वविद्यालय की सांसों में जान फूंक दी। उस दौर की गंभीरता को बताते हुए दाधीच कहते हैं, ‘उसी हां की एवज में मुझे विश्वविद्यालय के लिए प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने को कहा गया। रिपोर्ट तैयार हुई और 50 हजार विद्यार्थियों के एड्मिशन को विश्वविद्यालय के लिए टेक-ऑफ पॉइंट माना गया। मेरा मानना था कि अगर 50 हजार विद्यार्थी विश्वविद्यालय के पास आ जाते हैं, तो विश्वविद्यालय के वित्तीय घाटों की पूर्ति और बढ़ते खर्चों को संभाला जाना संभव होगा। उस वक्त मैं राजस्थान विश्वविद्यालय के गांधी भवन में निदेशक था। कई महीने बीत गए। अक्टूबर 2006 में एक दिन अचानक राजभवन से सूचना आई और नई जिम्मेदारी संभालने को कहा गया। ...और बस शुरुआत हो गई।’
इस नई और बड़ी जिम्मेदारी के साथ ही डॉ. दाधीच के सामने सफलता और असफला की उस बारीक सी दूरी को पाटने का चेलेंज साथ आया। विश्वविद्यालय के सामने वित्तीय हालात सबसे बड़ा संकट था। साथ ही विद्यार्थियों की कमी और इग्नू की सामग्री के सहयोग से चल रहे 39 कोर्स जैसे थक से गए थे। यही पर शुरुआत हुई लाखों विद्यार्थियों के सपनों को बुनने और भरोसेमंद मजबूत कंधों के सहारे आगे बढऩे की। डॉ. दाधीच ने कोर्स बढ़ाने और एक योजनाबद्ध तरीके से विद्यार्थियों को नए विषयों की ओर आकर्षित करने का काम शुरू किया। जो पाठ्य सामग्री इग्नू से ली जाती थी, विश्वविद्यालय स्तर पर तैयार करवाई जाने लगी। योजना और मेहनत रंग लाई। विद्यार्थियों की संख्या में हर साल तेजी से इजाफा हुआ। कोर्स तैयार हुए, तो उनकी गुणवत्ता दूसरे विश्वविद्यालयों को आकर्षित किए बिना न रह सकी। डॉ. दाधीच के प्रबंध कौशल का यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि आज विश्वविद्यालय के हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।
इस सफलता के बारे में बताते हुए डॉ. दाधीच कहते हैं, ‘शुरुआती दौर में जो योजना बनाई गई, उस पर पूरी तरह अमल किया गया। कोर्स कम थे और विद्यार्थियों को आकर्षित करने में सफल नहीं हो पा रहे थे, उन्हें विद्यार्थियों और कामकाजी लोगों के लिहाज से तैयार करवाया गया। पहले इग्नू की शिक्षण सामग्री लेने की वजह से हमें कुल फीस का 10 फीसदी हिस्सा उन्हें देना होता था। अब विश्वविद्यालय की खुद की अध्ययन सामग्री है, जिसकी गुणवत्ता की वजह से कई राज्यों में हमारी सामग्री विभिन्न विश्वविद्यालयों में उपयोग में लाई जा रही है। इससे दो फायदे हुए। पहला इग्नू को जाने वाला 10 फीसदी पैसा बचा और दूसरा दूसरे विश्वविद्यालयों को सामग्री मुहैया करवाने से विश्वविद्यालय की आमदनी बढऩे लगी। आज केवल सामग्री मुहैया करवाने से विश्वविद्यालय को हर साल एक करोड़ से ज्यादा की आमदनी हो रही है। गुणवत्तापूर्ण 114 कोर्स होने की वजह से 1.34 हजार विद्यार्थी आए। इसका सबसे बड़ा फायदा हुआ कि विश्वविद्यालय पहले सरकार से सहायता लेता था, जिसे पूरी तरह बंद कर दिया गया है। अब हम पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं। इसी आत्मनिर्भरता की वजह से कर्मचारियों की बढ़ती तनख्वाहें, विश्वविद्यालय के खर्चो जैसा कोई दबाव अब नहीं रहा है।’

डॉ. दाधीच पढऩे-लिखने के शौकीन और अच्छे कवि भी हैं। उनके लेखन का सफर 1970-71 के दौर में शुरू हुआ। वे कहते हैं, ‘तब मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई थी, लेकिन यह शौक परवान तब चढ़ा जब मैंने दूर क्षितिज तक कविता संग्रह को लिखना शुरू किया। यह संग्रह 2008 में प्रकाशित भी हुआ। अपनी इसी रुचि के चलते मैंने तीन उपनिशदों को छंदों में भी ढाला है।’ सरल मिजाज और परिवार के बेहद करीब डॉ. दाधीच ने सही मायने में परिवर्तन का आगाज किया है। वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय में उनका छह साल का सफर केवल शिक्षा ही नहीं, प्रबंधन और एंटरप्रेन्योरशिप के लिहाज से भी मिसाल कायम करने वाला रहा है। एक ऐसी मिसाल, जिसे तब-तब याद किया जाता रहेगा, जब-जब देश का कोई भी विश्वविद्यालय अपने अस्तित्व की लड़ाई और उससे उबरने की जद्दोजहद से जूझ रहा होगा। ऐसे हर अवसर पर डॉ. दाधीच के पद्चिन्ह एक नई ऊर्जा, नई शक्ति का एहसास कराएंगे।
सबसे बड़ा अवसर
मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा अवसर लाहौर में बुल्लेशाह मैत्रीसंघ का सम्मेलन था। इस सम्मेलन में भाग लेने मैं पाकिस्तान गया था। यहीं पर मैंने एक गीत जो बुल्लेशाह पर आधारित था की रचना की और सम्मेलन में सुनाया। यह अवसर जिंदगी का सबसे यादगार अवसर था मेरे लिए। मैं बुल्लेशाह के गीत को गा रहा था और पाकिस्तान की अवाम उसके सुर में सुर मिला रही थी। यही पर रचे गीत की ये पंक्तियां मैं जब-जब गुनगुनाता
हूँ, बुल्लेशाह की दृष्टि को खुद में पाता
हूँ -
जिनकी राहें अनजानी हों
जिनकी आंखों में पानी हो
बोले रब की बोली
पीर लगे या जो ध्यानी हो
खड़े रहे चुपचाप चौराहे
दर्द सभी का जो सहते हैं
उसको यारों क्या कहते हैं
उसको बुल्लेशाह कहते हैं।
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